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वक्फ, संसद, राजनीति, संविधान और राष्ट्र

 

लेखक: अशोक कुमार झा (प्रधान संपादक - PSA लाइव न्यूज और रांची दस्तक) 

भारत जैसे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में जब कोई धार्मिक या संवेदनशील मुद्दा उठता है, तो वह न केवल कानून और समाज से जुड़ा होता है, बल्कि उसका असर सीधे-सीधे राजनीति और संविधान तक जाता है। ऐसा ही एक मुद्दा है वक्फ कानून, जो इन दिनों ममता बनर्जी के बयान के बाद फिर से सुर्खियों में है। इस लेख में हम समझेंगे कि वक्फ क्या है, संसद का इसमें क्या रोल है, संविधान क्या कहता है, और राजनीति इसमें कैसे दखल देती है।

वक्फ क्या है?

वक्फ एक इस्लामिक परंपरा है, जिसके तहत कोई मुस्लिम व्यक्ति अपनी चल या अचल संपत्ति को धार्मिक, सामाजिक या परोपकारी कार्यों के लिए स्थायी रूप से समर्पित कर देता है। यह संपत्ति फिर वक्फ बोर्ड के अधीन चली जाती है और इसका उपयोग मस्जिद, मदरसा, कब्रिस्तान या अन्य धार्मिक-सामाजिक कार्यों में किया जाता है।

भारत में वक्फ से संबंधित प्रबंधन के लिए एक विशेष कानून है, वह है “ वक्फ अधिनियम, 1995, जिसे समय-समय पर संशोधित किया जाता रहा है।

संसद की भूमिका:

भारत की संसद देश का सर्वोच्च विधायी निकाय है। संसद द्वारा पारित कोई भी कानून पूरे देश में लागू होना संवैधानिक रूप से अनिवार्य होता है। वक्फ अधिनियम भी संसद द्वारा पारित एक कानून है, और हाल ही में इसमें कुछ संशोधन किए गए हैं, जिनका उद्देश्य वक्फ संपत्तियों में पारदर्शिता लाना, अवैध अतिक्रमण रोकना और प्रबंधन में जवाबदेही सुनिश्चित करना है।

हालांकि, यह कानून 'केंद्र और राज्य दोनों' के विषय (Concurrent List) से जुड़ा है, इसलिए राज्य सरकारें इसे लागू करने के तरीके में भूमिका निभा सकती हैं, लेकिन इसे पूरी तरह खारिज करने का अधिकार उनके पास नहीं है।

संविधान की दृष्टि से:

भारतीय संविधान की धारा 245 से 248 तक संसद और राज्य विधानसभाओं की विधायी शक्तियों को परिभाषित किया गया है।

  • अनुच्छेद 245 कहता है कि संसद संपूर्ण भारत के लिए कानून बना सकती है।
  • अनुच्छेद 254 कहता है कि यदि राज्य और केंद्र के कानूनों में टकराव होता है, तो केंद्र का कानून प्रभावी माना जाएगा।

इस प्रकार, यदि वक्फ संशोधन कानून संसद द्वारा पारित है, तो उसे हर राज्य में लागू करना एक संवैधानिक जिम्मेदारी है।

राजनीति की भूमिका:

वक्फ जैसे संवेदनशील मुद्दे अक्सर राजनीतिक रंग ले लेते हैं। नेताओं द्वारा दिये गए बयान कभी-कभी धार्मिक भावनाओं को भड़काने का कार्य भी करते हैं। ममता बनर्जी द्वारा वक्फ कानून को लागू न करने का बयान इसी श्रेणी में देखा जा सकता है।

सभी राजनीतिक दल इस मुद्दे को अपने-अपने एजेंडे के अनुसार भुनाने की कोशिश में लगे हुए हैं। भाजपा इसे संविधान और संसद का अपमान बता रही है। तृणमूल कांग्रेस इसे 'राज्य के अधिकार' और 'अल्पसंख्यकों के हित' के तौर पर पेश कर रही है। इस टकराव में आम जनता, विशेषकर धार्मिक अल्पसंख्यक और हिंदू समुदाय दोनों ही भ्रम की स्थिति में आ जाते हैं।

जब किसी कानून को राजनीतिक बयानबाज़ी और सांप्रदायिक दृष्टिकोण से देखा जाता है, तो सामाजिक ताना-बाना कमजोर होने लगता है। बंगाल के मुर्शिदाबाद में वक्फ कानून के विरोध में जो प्रदर्शन हुए, जिनमें हिंसा व पलायन की खबरें आईं, वे इस बात के उदाहरण हैं कि कैसे एक कानूनी मुद्दा को सामाजिक संकट में बदल दिया जाता है।

वक्फ बोर्ड और उनकी चुनौतियाँ

भारत में केंद्र और राज्य स्तर पर वक्फ बोर्ड गठित किए गए हैं। ये बोर्ड वक्फ संपत्तियों का रजिस्ट्रेशन, देखरेख और प्रबंधन करते हैं। देश में वक्फ की संपत्तियाँ लाखों एकड़ में फैली हुई हैं, जिनकी अनुमानित कीमत लाखों करोड़ रुपए में है।

कई जगह वक्फ संपत्तियों पर अवैध कब्जे हैं। वक्फ बोर्डों पर राजनीतिक प्रभाव और भ्रष्टाचार के आरोप भी लगते रहे हैं। पारदर्शिता की कमी और डिजिटल रिकॉर्ड का अभाव भी एक बड़ी समस्या है। कई बार यह देखा गया है कि वक्फ संपत्तियाँ अपने असली उद्देश्यों (शिक्षा, स्वास्थ्य, सहायता) की बजाय व्यवसायिक हितों में इस्तेमाल की जाती हैं। वास्तव में वक्फ संशोधन कानून का उद्देश्य भी इन्हीं समस्याओं को दुरुस्त करना है।

राज्य बनाम केंद्र: संघीय ढांचे की बहस

भारत एक संघात्मक गणराज्य है। इसका अर्थ यह है कि केंद्र और राज्य, दोनों की अपनी-अपनी शक्तियाँ और अधिकार हैं। लेकिन जब केंद्र संसद के ज़रिए कोई कानून बनाता है जो राज्यों को भी प्रभावित करता है, तब टकराव की स्थिति बन जाती है।

ममता बनर्जी का बयान इसी संघीय अधिकार की बात करता है, लेकिन यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या कोई राज्य संसद द्वारा पारित कानून को लागू न करने की घोषणा कर सकता है? तो इसका जवाब संविधान स्पष्ट कहता है, नहीं।

संविधान की धाराएं केंद्र को यह शक्ति देती हैं कि यदि कानून 'सार्वजनिक महत्व' का हो, तो वह राज्यों पर भी लागू होता है। इसलिए वक्फ संशोधन कानून से पल्ला झाड़ना न केवल संवैधानिक संकट खड़ा करता है, बल्कि पूरे संघीय संतुलन को भी चुनौती देना है।

धर्म, राजनीति और वोट बैंक

भारत में धर्म, वोट बैंक और राजनीति एक-दूसरे से बुरी तरह उलझे हुए हैं। जहां एक ओर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके धार्मिक अधिकारों की बात की जाती है, वहीं दूसरी ओर इन मुद्दों का इस्तेमाल सिर्फ चुनावी फायदे के लिए भी होता है। वक्फ कानून को लेकर ममता बनर्जी की राजनीति को भाजपा मुस्लिम तुष्टिकरण करार दे रही है, जबकि तृणमूल कांग्रेस इसे अल्पसंख्यक हितों की रक्षा बता रही है।

लेकिन सवाल यह है कि क्या कानून की अवहेलना कर अल्पसंख्यकों की रक्षा की जा सकती है? या क्या हर बार मुस्लिम समुदाय को किसी विवाद के केंद्र में लाकर उनकी स्थिति को और अधिक जटिल नहीं बनाया जा रहा?

न्यायपालिका की भूमिका

जब किसी राज्य या दल द्वारा कानून को लागू न करने की बात होती है, तो अंतिम उम्मीद न्यायपालिका की होती है। कलकत्ता हाईकोर्ट द्वारा मुर्शिदाबाद में हिंसा के बाद केंद्रीय बलों की तैनाती करने का निर्देश देना यह दिखाता है कि अदालतें राज्य सरकार के रवैये से संतुष्ट नहीं हैं। आगे जाकर यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच सकता है, खासकर यदि संविधान की धारा 254 (राज्य और केंद्र के कानून में टकराव) की व्याख्या की ज़रूरत पड़े। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका का हस्तक्षेप यह सुनिश्चित करता है कि कानून व्यवस्था बनी रहे और संविधान की भी  अवहेलना न हो।

भारत में धर्म और राज्य का संबंध हमेशा से संवेदनशील रहा है। भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता की बात करता है, जिसका अर्थ यह नहीं कि राज्य धर्म विरोधी है, बल्कि यह कि राज्य किसी एक धर्म का पक्ष नहीं लेता।

वक्फ एक धार्मिक संस्था है, लेकिन इसके पास संपत्ति और वित्तीय शक्तियाँ हैं, जो इसे एक "नॉन-स्टेट पावर सेंटर" बनाती हैं। यही कारण है कि इसे विनियमित करने के लिए आज कानून की आवश्यकता पड़ गई

वक्फ की परिकल्पना मुस्लिम समाज के आंतरिक कल्याण हेतु हुई थी, पर जब वक्फ बोर्ड जैसी संस्थाएं सार्वजनिक भूमि, शिक्षा संस्थानों और अस्पतालों पर नियंत्रण करने लगें तो सवाल उठते हैं कि इनका सामाजिक उत्तरदायित्व क्या है?

राजनीति में हर दल अपने-अपने "टारगेट वोट बैंक" को संतुष्ट करने की कोशिश करता है। एक तरफ  तृणमूल कांग्रेस ममता बनर्जी के नेतृत्व में खुद को अल्पसंख्यकों का रक्षक बताती रही है तो दूसरी तरफ  भाजपा खुद को 'समान नागरिक अधिकार' और 'एक भारत' की नीति के पैरोकार के रूप में प्रस्तुत कर रही है। मगर सच्चाई यह है कि दोनों ही दल चुनावी समय में इन मुद्दों को ज्यादा जोर से उठाते हैं, और सत्ता में आ जाने के बाद अक्सर इनकी गंभीरता कम हो जाती है।

वक्फ कानून और उसके प्रबंधन को लेकर एक बड़ा तर्क यह भी आता है कि यह भारत में समान नागरिक संहिता के रास्ते में बाधा है। UCC का मूल उद्देश्य यही है कि सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून हो, चाहे वह संपत्ति हो, विवाह हो या धार्मिक संस्था। प्रश्न यह है कि अगर हिन्दू मंदिर, जैन धर्मशाला, सिख गुरुद्वारे सभी सार्वजनिक पारदर्शिता के दायरे में आ रहे हैं, तो क्या वक्फ बोर्ड भी वैसी ही पारदर्शिता का पालन करेंगे?

भारत में अल्पसंख्यकों को शिक्षा, धार्मिक स्वतंत्रता और अपनी संस्कृति कि रक्षा के लिये संवैधानिक अधिकार जरूर दिए गए हैं। लेकिन जब इन अधिकारों का इस्तेमाल जब एक विशेष समूह को विशेषाधिकारदेने के लिए होता है, तो बहुसंख्यक समाज में असंतोष उत्पन्न होता है। इसलिए अब यह ज़रूरी हो गया है कि अधिकारों का संतुलन हो, कानून सबके लिए एक समान हों और धार्मिक संस्थाओं की भी जवाबदेही हो । 

आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया पर कई तरह की गलत सूचनाएं तेजी से फैलने लगती हैं। वक्फ कानून को लेकर भी कई अफवाहें हैं  कि यह गैर-मुस्लिम संपत्तियों को हड़पने का एक माध्यम है और इससे मुसलमानों को विशेष अधिकार मिलते हैं। परंतु हकीकत यह है कि यह कानून किसी भी धर्म के खिलाफ नहीं है। इस कानून का उद्देश्य केवल यह सुनिश्चित करना है कि वक्फ संपत्तियाँ उनके घोषित उपयोग में आएं और किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति बिना कानूनन प्रक्रिया के वक्फ घोषित नहीं हो। 

आज वक्फ कानून एक ऐसी जगह पर आकार खड़ा होता है जहां धर्म, प्रशासन और सार्वजनिक हित आपस में टकराने लगे हैं। उदाहरण के तौर पर एक मुसलमान द्वारा दान की गई ज़मीन पर मस्जिद बनाना धार्मिक कार्य है, लेकिन यदि उस संपत्ति का उपयोग राजनीतिक फायदे, भूमि घोटाले या अवैध कब्जे के लिए हो, तो सवाल उठता है कि तब भी राज्य को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए या नहीं?

भारत की विविधता ही उसकी असली शक्ति है, पर यही विविधता तब जाकर एक बड़ी समस्या बन जाती है जब उसे राजनीति का औजार बना दिया जाता है। वक्फ कानून, संसद, संविधान और राजनीतिये चारों तत्व भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के अहम स्तंभ हैं। लेकिन जब राजनीति, संवैधानिक प्रावधानों को चुनौती देने लगे और धर्म को हथियार बना ले, तब समस्या जन्म ले लेती है।

यह वक्फ कानून, चाहे वह किसी एक समुदाय से जुड़ा हुआ क्यों न हो, लेकिन जब वह संसद द्वारा पारित हो चुका है, तब उसे देश के हर हिस्से में समान रूप से लागू करना ही संविधान की आत्मा है। राजनीति को संविधान की मर्यादा के भीतर रहकर ही समाज की सेवा करनी चाहिए। जब तक राजनीति कानून से ऊपर मानी जाएगी, तब तक संविधान का सम्मान अधूरा रहेगा।

 

 अब समाधान इसी बात में है कि संसद द्वारा पारित कानूनों को समान रूप से लागू किया जाए, राज्य सरकारें संविधान की मर्यादा में रहकर कार्य करें, और राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता की भावना को प्राथमिकता दें। केवल तभी भारत एक मजबूत, न्यायपूर्ण और एकजुट राष्ट्र बना रह सकता है। अन्यथा भारत का संविधान केवल किताबों तक सीमित रह जाएगा और राजनीतिक इच्छाशक्ति तथा नागरिक जागरूकता के अभाव में यह कभी भी जीवंत नहीं हो पाएगा। 

वक्फ, संसद, राजनीति, संविधान और राष्ट्र वक्फ, संसद, राजनीति, संविधान और राष्ट्र Reviewed by PSA Live News on 3:16:00 pm Rating: 5

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