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मुफ्त की राजनीति बनाम आत्मनिर्भर भारत: राष्ट्रनिर्माण की राह पर निर्णायक मोड़

 

अशोक कुमार झा । 
भारत, जो कभी विश्व बैंक और विदेशी सहायता पर निर्भर था, आज विश्व मंच पर एक आत्मनिर्भर और मदद करने वाला देश बन चुका है। संकट के समय में जो देश कभी सहायता के लिए दूसरों की ओर देखता था, वही आज प्राकृतिक आपदाओं और वैश्विक संकटों में मदद करने के लिए अग्रिम पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है। यह परिवर्तन देश की जनता की मेहनत, कर व्यवस्था में पारदर्शिता, और विकास के प्रति सामूहिक समर्पण का परिणाम है।

परंतु देश में इस प्रगति के समानांतर एक चिंताजनक प्रवृत्ति भी उभर रही है - मुफ्तखोरी की राजनीति। जैसे-जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव करीब आते हैं, राजनीतिक दल मुफ्त सुविधाओं का वादा करके वोट बटोरने की कोशिश में लग जाते हैं। झारखंड का उदाहरण लें, जहाँ हेमंत सोरेन सरकार ने "मइया सम्मान योजना" के तहत महिलाओं को ₹1000 प्रति माह देने की योजना शुरू की, वहीं भाजपा ने भी अपनी रणनीति बदलते हुए ₹2100 का वादा किया, फिर आगे चलकर चुनावी समीकरणों के दबाव में हेमंत सोरेन की यह राशि ₹2500 तक पहुंच गया।

इसी तरह महाराष्ट्र और दिल्ली में भी भाजपा ने मुफ्त योजनाओं की घोषणाएं कीं, जिससे उन्हें चुनावी सफलता मिली। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार भी मुफ्त बिजली, पानी और अन्य सुविधाओं के वादों पर बनी।

यह प्रवृत्ति एक गंभीर प्रश्न उठाती है - क्या मुफ्त योजनाएं देश की आत्मनिर्भरता और मूल संस्कारों को क्षति पहुँचा रही हैं?
भारत की संस्कृति हमेशा ‘देने’ की रही है। हमारे इतिहास में भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे बलिदानी महापुरुषों ने देश के लिए सब कुछ त्याग दिया। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था, "पल पल देना क्षण क्षण देना, यह जीवन का अर्थ है, जो जितना ज्यादा देता है, वह उतना अधिक समर्थ होता है।" लेकिन आज हम उसी देश को अपने ही हाथों से लूटने की प्रवृत्ति में लगे हैं।

मुफ्त योजनाएं तात्कालिक रूप से जनसमर्थन जुटाने का सरल तरीका भले ही हों, लेकिन लंबे समय में यह देश की आर्थिक मजबूती, नीति निर्माण और जन-जागरूकता के लिए घातक साबित हो सकती हैं। अगर हमने समय रहते इस प्रवृत्ति पर चिंतन नहीं किया, तो आने वाली पीढ़ियों को इसका गंभीर खामियाजा उठाना पड़ सकता है।

हमारे देश की आज की बदलती तस्वीर देखकर आज हर भारतवासी गर्व करता है, चाहे चंद्रयान की सफलता हो या कोरोना काल में वैक्सीन का आत्मनिर्भर निर्माण हो, या फिर दुनिया भर में भारत की बढ़ती साख। लेकिन इस सबके बीच एक ऐसा "राजनीतिक संक्रमण" फैल रहा है, जो इस प्रगति की नींव को खोखला कर सकता है, वह है हमारी  मुफ्त की राजनीति।

आज राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही मुफ्त घोषणाएं वोट बटोरने का एक हथियार बन चुकी हैं। साथ ही वोट मांगने का अब तरीका यह हो गया है कि  "तुम्हें क्या चाहिए, हम देंगे।" कभी लैपटॉप, कभी मोबाइल, कभी मुफ्त बिजली, तो कभी नकद राशि। यह एक प्रकार की "राजनीतिक रिश्वत" है, जो सीधे जनता के स्वाभिमान को चोट पहुँचा रही है।

परंतु यहाँ सवाल यह भी है कि क्या हम सिर्फ लाभ देखने वाले नागरिक बन चुके हैं? क्या हमें अपने कर्तव्यों से ज़्यादा अपने हकों की चिंता है? अगर हम अपने वोट को केवल मुफ्त की योजनाओं के बदले देने लगें, तो हम स्वयं देश के भविष्य को गिरवी रखने की तरफ ले जा रहे हैं, जिसका एहसास हमें तत्काल नहीं हो पा रहा है ।

क्योंकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी खजाना कोई अंतहीन स्रोत नहीं है। जब सरकारें मुफ्त की योजनाएं घोषित करती हैं, तो उनका बोझ अंततः आम नागरिकों पर टैक्स या महंगाई के रूप में आता है। यह एक "छलावा" है, जिसमें हम थोड़ा जरूर पाते हैं, लेकिन बहुत कुछ खो देते हैं - आत्मनिर्भरता, नीति की स्थिरता, और भविष्य की योजनाएं।

देश को इस समय सिर्फ आर्थिक नीतियों की नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण की भी ज़रूरत है। वो संस्कृति, जो हमें सिखाती है "त्याग में ही महानता है", आज "मुफ्त में क्या मिलेगा?" के सवालों में उलझ गई है। हमारे पूर्वजों ने देश के लिए जान दी, और हम वोट सिर्फ राशन के थैले या ₹2000 की घोषणा पर दे रहे हैं। ये केवल चुनावी मुद्दा नहीं, ये हमारे राष्ट्रीय चरित्र का प्रश्न है।

हमें यह तय करना होगा कि हम भीख मांगने वाले भारत में लौटना चाहते हैं या मदद करने वाले भारत को और आगे बढ़ाना चाहते हैं। यह सिर्फ सरकारों की ज़िम्मेदारी नहीं है, यह हम सबकी ज़िम्मेदारी है । 


जब राजनीतिक दल देखते हैं कि मुफ्त योजनाएं उसे वोट दिला सकती हैं, तो वे इनका सहारा लेते हैं। लेकिन ये योजनाएं तब तक ही चल पाती हैं जबतक कि सरकारी खजाना भरा हो। यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारी सोच वहाँ तक नहीं पहुँच पाती है, जिससे हम समझ सकें कि इन मुफ्त योजनाओं का वित्तीय स्रोत कहां से आता है?

आज यह भी सच है कि हमारे देश में कुछ राज्यों की माली हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि कर्मचारियों को वेतन देने तक के लिए कर्ज लेना पड़ रहा  है। मगर फिर भी वहाँ की सरकारें चुनाव जीतने के लिए मुफ्त की नई नई योजनाओं की घोषणाएं करती रहती हैं। यह आर्थिक आत्महत्या जैसा है, जिसमें तात्कालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक भविष्य को दांव पर लगाया जा रहा है।

अब समय आ गया है कि हम एक राष्ट्र के रूप में आत्मनिरीक्षण करें। हमें यह तय करना होगा कि हम कैसा भारत आने वाली पीढ़ी को सौंपना चाहते हैं । क्या एक ऐसा भारत, जो केवल मुफ्त की घोषणाओं पर झूमे और खुद को कमजोर बनाता चला जाए? या फिर एक ऐसा भारत, जो अपने बलिदान, परिश्रम और आत्मनिर्भरता की विरासत को फिर से जीवित करे?

हमारा इतिहास गवाह है कि जब-जब भारतवासियों ने स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्रहित को चुना, तब-तब देश ने नए शिखर छुए हैं। हर वो आंदोलन, जिसने भारत को स्वतंत्रता दिलाई, उसमें त्याग की भावना सर्वोपरि रही। भिक्षा की नहीं, बलिदान की परंपरा हमारी पहचान रही है।

हमारी मुफ्त योजनाओं की राजनीति असल में लोकतंत्र को खोखला कर रही है। जहाँ मतदाता का मूल्यांकन किसी नीति, विकास कार्य या प्रशासनिक योग्यता के आधार पर होना चाहिए, वहाँ आज उसकी कसौटी बन चुकी है कि “कौन कितनी चीज़ें मुफ्त में देगा?” अगर यह सोच गहराती गई, तो आने वाले वर्षों में हमें एक ऐसा भारत मिलेगा, जहाँ सरकारें केवल चुनावी घोषणाओं में उलझी रहेंगी, जहाँ वास्तविक विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, कृषि सब पीछे छूट जाएंगे और जहाँ जनता सिर्फ एक निर्भर नागरिक बनकर रह जाएगी, जिम्मेदार नागरिक नहीं।

मुफ्त का लालच, राष्ट्र का पतन है। जब किसी देश की जनता सिर्फ अपने लाभ के बारे में सोचने लगे और अपने कर्तव्यों को भूल जाए, तो वह देश चाहे जितना भी आगे बढ़ा हो, उसकी नींव हिलने लगती है। इसलिए अब वक्त है कि हम कुछ प्रश्न खुद से पूछें, क्या हम केवल पाने के लिए वोट दे रहे हैं या देश बनाने के लिए? क्या हम अपने बच्चों को एक कर्ज़ में डूबा हुआ राष्ट्र देना चाहते हैं या एक सशक्त, आत्मनिर्भर भारत? क्या हम अपने पुरखों की बलिदानों की विरासत को केवल योजनाओं की रसीदों में गवां देंगे?

एक नए भारत की नींव तब ही रखी जा सकती है, जब यहाँ का हर नागरिक यह शपथ ले कि "मैं देश को लूटने का नहीं, देश को बनाने का हिस्सा बनूंगा।" "मैं मतदाता नहीं, राष्ट्र निर्माता हूं।" "मैं मांगूंगा नहीं, दूंगा। क्योंकि देने में ही भारत की सच्ची आत्मा बसती है।"

यह आंदोलन किसी एक पार्टी या नेता का नहीं है। यह एक सांस्कृतिक आंदोलन है। यह हर उस नागरिक का आंदोलन है जो चाहता है कि उसका देश फिर से ‘विश्वगुरु’ बने और इसके लिए सबसे पहली शर्त है कि हम मुफ्तखोरी को नकारें, और कर्तव्यनिष्ठा को अपनाएं।

अभी हमारे सामने एक ऐसा चौराहा है, जहां एक राह मुफ्त की राजनीति की है, जो हमें फिर से उसी पराधीनता की ओर ले जाएगी, जहाँ हम दूसरों की ओर ताकते थे। वहीं दूसरी राह कर्तव्य, आत्मनिर्भरता और आत्मगौरव की है, जहाँ से हम गर्व से कह सकते हैं कि "हम भारतवासी हैं, और हम देने वाले हैं, मांगने वाले नहीं।"

अब फैसला हमारा है कि हम अपने देश को किस दिशा में ले जाना चाह रहे हैं? अभी हमारे पास यह विचार करने का समय बचा हुआ है। अन्यथा इसका परिणाम कितना भयावह होगा, इसकी अभी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।

लेखक PSA लाइव न्यूज़ और रांची दस्तक (हिन्दी साप्ताहिक) के प्रधान संपादक हैं ।   

मुफ्त की राजनीति बनाम आत्मनिर्भर भारत: राष्ट्रनिर्माण की राह पर निर्णायक मोड़ मुफ्त की राजनीति बनाम आत्मनिर्भर भारत: राष्ट्रनिर्माण की राह पर निर्णायक मोड़ Reviewed by PSA Live News on 1:59:00 pm Rating: 5

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