ब्लॉग खोजें

भारतीय संविधान के जनक बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती: क्या हम उनके सपनों का भारत बना पाए?"

अशोक कुमार झा 

हर वर्ष 14 अप्रैल को जब हम भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती मनाते हैं और 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, तब यह अवसर केवल एक महान विभूति को स्मरण करने का नहीं होता, बल्कि  यह आत्मनिरीक्षण का भी अवसर होता है। यह सोचने का समय होता है कि क्या हम बाबासाहेब के बताए रास्ते पर चल पाए हैं? क्या हम उस भारत की ओर बढ़ सके हैं, जिसकी नींव उन्होंने संविधान के माध्यम से रखी थी?


संविधान: केवल अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व भी


डॉ. अंबेडकर ने संविधान को केवल एक विधिक दस्तावेज नहीं माना, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का साधन बताया था। उन्होंने साफ कहा था कि संविधान की हर 10 वर्षों में समीक्षा होनी चाहिए । विशेषकर आरक्षण जैसे प्रावधानों की, जो एक जातिगत आवश्यकता के रूप में लाए गए थे, न कि जातिगत अधिकार के रूप में।


परंतु आज स्थिति यह है कि बाबासाहेब के नाम पर हर तरफ वही बातें दोहराई जाती हैं — “बाबासाहेब ने आरक्षण दिया,” “बाबासाहेब ने यह अधिकार दिया।” लेकिन कोई यह नहीं कहता कि बाबासाहेब ने यह भी कहा था कि इन नीतियों की समय-समय पर समीक्षा होनी चाहिए। उन्होंने आरक्षण को एक अस्थायी व्यवस्था के रूप में देखा था, जो शोषित, वंचित और पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने का एक माध्यम था।


आज आरक्षण की लड़ाई में वे लोग भी आगे हैं जो समाज में आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से सशक्त हो चुके हैं। मोटी सोने की चेन पहनकर, महंगी गाड़ियों में आरक्षण की मांग करते हुए वे लोग भी बाबासाहेब का नाम लेते हैं और वह बाबा साहब की पीठ पर बंदूक रखकर कहते हैं कि यह अधिकार हमें बाबा साहेब ने दिया है।


लेकिन क्या यही था बाबासाहेब का सपना?


डॉ. अंबेडकर ने हमेशा कहा कि यदि भारत को एक राष्ट्र के रूप में खड़ा करना है, तो जातियों का तोड़ना अनिवार्य है। लेकिन आज हो यह रहा है कि समाज दो हिस्सों में बंट गया है – एक आरक्षित जाति और दूसरा अनारक्षित जाति। इस बंटवारे ने हमारे समाज में दूरी मिटाने की जगह एक गहरी खाई बना डाली है।


हमारे राजनीतिक दलों ने भी बाबासाहेब के नाम का सिर्फ एक राजनीतिक हथियार बना डाला है। जैसे ही कोई नेता आरक्षण की समीक्षा की बात करता है, तब जातिगत संगठन और समूह उन्हें धमकियाँ देने लगते हैं। उन्हें बाबा साहब का “विरोधी” करार दिया जाता है। हमारा आज का हकीकत यह है कि बाबासाहेब का नाम अब सिर्फ एक राजनीति का हथियार बन गया है, लेकिन उनके विचारों का पालन कहीं नहीं हो रहा।


आरक्षण का वास्तविक उद्देश्य था – उन लोगों को ऊपर उठाना जो सदियों से सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से शोषित रहे। लेकिन आज आरक्षण का लाभ भी उन्हीं समुदायों के अंदर एक सीमित, संपन्न वर्ग तक सिमट कर रह गया है। जो सबसे निचले पायदान पर हैं, जिन्हें बाबा साहब ने सबसे पहले देखने की बात कही थी, वे आज भी वहीं हैं और उन्हीं हालातों में जीने को मजबूर हैं।


ऐसे में जरूरी है कि देश मिलकर यह सोचे कि आज आरक्षण की वास्तविक जरूरत किसे है? क्या इसे जाति के आधार पर मिलना चाहिए या स्थिति के आधार पर? क्या हम उन लोगों तक यह सहायता पहुँचा पा रहे हैं, जिनके लिए यह वास्तव में बना था? यह आज विचारणीय विषय है।


डॉ. अंबेडकर की सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यह होगी कि हम उनके विचारों को सही रूप में समझें और लागू करें। जाति नहीं, योग्यता और ज़रूरत को प्राथमिकता दें। आरक्षण को राजनीति का हथियार न बनाकर सामाजिक न्याय का औजार बनाएं।


बाबासाहेब का नाम लेकर समाज को बाँटना नहीं, जोड़ना चाहिए। उनकी विरासत को पूजना नहीं, उसे अपनाना चाहिए। स्मारकों और रैलियों से नहीं, संवैधानिक मूल्यों की रक्षा कर हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।


डॉ. अंबेडकर ने आरक्षण को एक ऐसी सीढ़ी के रूप में देखा था जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को समानता के स्तर तक लाने में मदद करे। उन्होंने इसे स्थायी व्यवस्था नहीं, बल्कि अस्थायी सुधार बताया था। उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप से कहा था कि हर दस वर्षों में आरक्षण व्यवस्था की पुनः समीक्षा की जानी चाहिए – ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इसका लाभ वास्तव में उन्हीं तक पहुँच रहा है जिन्हें इसकी आवश्यकता है।


लेकिन आज की हकीकत यह है कि आरक्षण की चर्चा मात्र से ही राजनीतिक, जातिगत और भावनात्मक तूफान खड़ा हो जाता है। जो वर्ग आज इस नीति से सबसे अधिक लाभान्वित हो चुका है, वही वर्ग इस व्यवस्था को अपने "अधिकार" के रूप में देखता है, और इस पर पुनर्विचार को अपने अस्तित्व पर हमला मानता है। तो क्या यह उचित है? क्या यह संविधान और बाबासाहेब अंबेडकर की भावना के अनुरूप है?


राजनीति का शिकार बना आरक्षण

हमारे देश में आरक्षण अब वंचितों के सशक्तिकरण का माध्यम कम, और राजनीतिक दलों के वोट बैंक का उपकरण अधिक बन गया है। चुनाव के समय बाबासाहेब का नाम हर मंच से गूंजता है, उनके चित्र हर पोस्टर पर दिखाई देते हैं, परंतु उनके विचार, उनके दर्शन, और उनके द्वारा सुझाई गई आरक्षण समीक्षा की प्रक्रिया पर कोई चर्चा नहीं होती।


यह विडंबना ही है कि जिन लोगों के लिए यह व्यवस्था बनी थी, वे आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, और सम्मान की बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि समाज का एक सशक्त तबका उसी व्यवस्था का लाभ लेते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रहा है।


जातीय चेतना बनाम राष्ट्रीय एकता


भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में जातीय पहचान कभी पूरी तरह मिट नहीं सकती, लेकिन यह भी सच है कि इसे राष्ट्र निर्माण के रास्ते में बाधा नहीं बनने देना चाहिए। आज हम जिस दिशा में जा रहे हैं, उसमें जातीय चेतना इतनी मजबूत हो गई है कि राष्ट्रीय एकता उसकी छाया में दबने लगी है।


बाबासाहेब ने जाति को नष्ट करने की बात कही थी। उन्होंने 'जाति तोड़ो' आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन आज स्थिति उलटी है – हम जाति के नाम पर खुद को और अधिक बाँटते जा रहे हैं। समाज में विश्वास की जगह अविश्वास और अधिकार की जगह ईर्ष्या ने ले ली है।



आज का युवा वर्ग जब बाबासाहेब अंबेडकर का नाम सुनता है, तो अधिकांश लोग उन्हें सिर्फ आरक्षण के जनक के रूप में पहचानते हैं। जबकि उनका जीवन, संघर्ष और सोच इससे कहीं अधिक व्यापक और क्रांतिकारी थी।

बाबासाहेब एक दर्शनशास्त्रीअर्थशास्त्रीकानूनविदशिक्षाशास्त्री और सामाजिक सुधारक थे। उन्होंने केवल शोषितों की बात नहीं की, बल्कि समाज के हर वर्ग के उत्थान की कल्पना की। उनका सपना एक ऐसा भारत था जहाँ योग्यता, न्याय और समानता सर्वोपरि हों, न कि जाति या धर्म। लेकिन क्या आज के युवाओं को बाबासाहेब का असली परिचय मिल पा रहा है? क्या शिक्षा प्रणाली, मीडिया और समाज उन्हें सही संदर्भों में पेश कर रहा है? या हम उन्हें सिर्फ एक राजनीतिक प्रतीक के रूप में सीमित कर चुके हैं?


संविधान की आत्मा और सामाजिक न्याय की सच्चाई

भारत का संविधान दुनिया के सबसे समावेशी संविधानों में गिना जाता है। इसमें हर नागरिक के लिए स्वतंत्रता, समानता, और बंधुत्व की गारंटी दी गई है। लेकिन आज, संविधान की आत्मा कहीं न कहीं राजनीतिक भाषणों में खो गई है, और इसकी धारणा का उपयोग लाभ की राजनीति में तब्दील हो चुकी है।

आरक्षण, जो एक सहायक उपकरण था, उसे मूल अधिकार की तरह पेश किया जा रहा है। इतना ही नहीं, जो लोग आरक्षण की समीक्षा की बात करते हैं, उन्हें वंचितों का विरोधी कहकर चुप करवा दिया जाता है। परंतु सच्चा सामाजिक न्याय तो वही है, जिसमें हम हर उस व्यक्ति की मदद करें जो वंचित है – चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या वर्ग का हो।

देश की प्रगति बनाम जातिगत राजनीति

भारत जैसे विशाल और विविध देश के लिए सबसे बड़ा संकट आज जातिगत ध्रुवीकरण बनता जा रहा है। हमारी हर नीति और हर योजना जातियों के नजरिए से देखी जा रही है, जिससे राष्ट्रीय एकता कमजोर, और सामाजिक टकराव बढ़ता जा रहा है।

बाबासाहेब ने जिस भारत की परिकल्पना की थी, वह इन दीवारों से मुक्त था। उन्होंने एक ऐसा राष्ट्र बनाना चाहा था जहाँ हर नागरिक को बराबरी का अवसर मिले, न कि जातिगत पहचान के आधार पर विशेषाधिकार। आज अगर हम उन्हें सच में याद करना चाहते हैं, तो हमें ‘सत्ता की राजनीति’ को छोड़कर ‘संविधान की नीति’ अपनानी होगी।

आगे का रास्ता: नई सोच, नया भारत

अब समय आ गया है कि हम केवल बाबासाहेब का नाम लेने से आगे बढ़ें। हमें उनके विचारों को व्यवहार में लाना होगा:

  • आरक्षण को जरूरतमंदों तक सीमित करें, न कि जातिगत पहचान तक।
  • हर 10 वर्षों में इसकी समीक्षा अनिवार्य करें, जैसा कि बाबा साहब ने स्वयं कहा था।
  • शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसरों तक सबकी पहुँच सुनिश्चित करें, ताकि आरक्षण की आवश्यकता ही धीरे-धीरे समाप्त हो।
  • जातिगत पहचान के बजाय राष्ट्रीय चरित्र को प्राथमिकता दें।

बाबासाहेब की जयंती केवल उत्सव नहीं, बल्कि एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। हर साल बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती पर हजारों रैलियाँ, सभाएँ, और भव्य आयोजन होते हैं। लेकिन क्या इन आयोजनों से वंचित समाज का कोई भला होता है? क्या इससे उनके सपनों का भारत करीब आता है? बाबासाहेब की सच्ची श्रद्धांजलि तो तब होगी जब हम उनके विचारों को जीने लगेंगे और उनके संविधान को आत्मा से अपनाएंगे।


अब समय आ गया है कि हम संविधान और सामाजिक नीतियों को नवीन सोच के साथ देखें। बाबासाहेब के विचारों के प्रति सच्ची निष्ठा यह होगी कि हम आरक्षण व्यवस्था को जाति आधारित नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक स्थिति के आधार पर लागू करें। साथ ही हम यह भी सुनिश्चित करें कि आरक्षण का लाभ वही व्यक्ति पाए जो वास्तव में वंचित है, भले ही वह किसी जाति का हो। साथ ही एक परिवार में यदि कोई पीढ़ी दर पीढ़ी लाभ ले चुका है, तो अगली पीढ़ी को यह लाभ केवल वास्तविक आवश्यकता की स्थिति में ही मिले। 


डॉ. अंबेडकर ने कहा था –"हम पहले और अंत में भारतीय हैं।" यह एक सीधी, सरल और सबसे महत्वपूर्ण बात है जिसे हम भूलते जा रहे हैं। आज जब हम बाबासाहेब का नाम जरूर लेते हैं, उनके चित्रों पर माल्यार्पण भी करते हैं, विशाल रैलियाँ और समारोह भी आयोजित करते हैं। परंतु  यह सब तब तक अधूरा है, जब तक हम उनके विचारों को अपने व्यवहार में नहीं उतारते।


संविधान दिवस और बाबासाहेब की जयंती केवल पर्व नहीं, यह राष्ट्र के लिए नए सोच, नए विमर्श और नए संकल्प का क्षण होना चाहिए। हम सभी मिलकर एक ऐसा भारत बनाएं जहाँ कोई भी नागरिक खुद को वंचित, अनदेखा या असमान न समझे।

अंत में: एक आत्मचिंतन का निमंत्रण

हमारा देश भारत आज एक ऐसा निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। जहां एक तरफ सामाजिक समरसता और समृद्धि का रास्ता है, और दूसरी तरफ जातिगत भेदभाव, विखंडन और टकराव का। अब हमें यह तय करना होगा कि हम किस दिशा में जाएंगे। क्या हम बाबा साहब के नाम को हथियार बनाकर समाज में खाई बढ़ाते रहेंगे? या उनके विचारों को ध्येय बनाकर समाज को जोड़ने का काम करेंगे?

"आरक्षण अधिकार नहीं, आवश्यकता था - बाबासाहेब ने इसे सहारे के रूप में देखा था, सत्ता के रूप में नहीं।"

"श्रद्धांजलि फूलों से नहीं दी जाती - वह विचारों की अग्नि में तपकर, समाज को समरस बनाकर दी जाती है।"

"बाबासाहेब ने जो दिया, वह अवसर था – न कि सत्ता। जो उन्होंने सिखाया, वह संघर्ष था – न कि सिर्फ विरोध। और जो उन्होंने चाहा, वह एकता थी – न कि बंटवारा।"

आइए, उनके विचारों को केवल शब्दों में नहीं, कर्मों में उतारें। हमारी ओर से यही होगी उनकी सच्ची श्रद्धांजलि।

लेखक PSA लाइव न्यूज़ और रांची दस्तक (हिन्दी साप्ताहिक) के प्रधान संपादक हैं ।   


भारतीय संविधान के जनक बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती: क्या हम उनके सपनों का भारत बना पाए?" भारतीय संविधान के जनक बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती: क्या हम उनके सपनों का भारत बना पाए?" Reviewed by PSA Live News on 10:54:00 am Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

Blogger द्वारा संचालित.