लेखक – अशोक कुमार झा
प्रधान संपादक – रांची दस्तक एवं PSA Live News
झारखंड की राजधानी रांची समेत पूरे राज्य में गर्मी के दिनों में पानी की जो भयावह स्थिति होती है, वह किसी से छिपी नहीं है। अप्रैल माह की शुरुआत होते ही पानी की किल्लत इतनी बढ़ जाती है कि कई लोग गर्मी के मौसम में अपने गांव-शहर को छोड़कर किसी अन्य स्थान पर रहने को मजबूर हो जाते हैं, जहां कम से कम पीने और दैनिक उपयोग के लिए पर्याप्त पानी मिल सके।
झारखंड, विशेषकर राजधानी रांची, हर साल गर्मियों में जिस जल संकट से गुजरता है, वह अब एक वार्षिक आपदा की शक्ल ले चुका है। यह हाल तब है जब केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी योजना 'हर घर नल से जल' का उद्देश्य ही यही था कि हर नागरिक को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराया जाए। लेकिन वास्तविकता यह है कि योजना की शुरुआत के वर्षों बाद भी स्थिति जस की तस है—या कहें और भी बदतर।
गर्मी में रांची की सच्चाई – बूंद-बूंद को तरसते लोग
अप्रैल से अगस्त तक राजधानी के कई इलाकों में जल संकट इस कदर गहरा जाता है कि लोग सुबह 4-5 बजे से ही बर्तन लेकर पानी के इंतज़ार में लाइन में खड़े हो जाते हैं। बुजुर्ग, महिलाएं और बच्चे घंटों इंतज़ार के बाद मुश्किल से कुछ बाल्टियाँ पानी भर पाते हैं। कई क्षेत्रों में टैंकर से आपूर्ति की जाती है, लेकिन वह भी पर्याप्त नहीं होती और अमूमन आर्थिक या राजनीतिक पहुंच वालों को प्राथमिकता मिलती है।
‘हर घर नल योजना’ बनी लोगों के लिए उम्मीद की किरण
जब केंद्र सरकार ने 'हर घर नल से जल' योजना की शुरुआत की, तो लोगों में एक नई उम्मीद जगी थी कि अब शायद गर्मी के इन भीषण दिनों में पानी के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। रांची समेत कुछ इलाकों में इस योजना के तहत पाइपलाइन बिछाने और घर-घर पानी पहुंचाने की प्रक्रिया शुरू भी की गई थी।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि योजना की शुरुआत भले ही उत्साहजनक रही हो, परंतु इसे लागू करने का तरीका बेहद लापरवाह और अपूर्ण था। कई इलाकों में कम गुणवत्ता वाले प्लास्टिक पाइप लगाए गए, जो अब क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। नतीजा यह है कि आज उन पाइपों से पानी आना तो दूर, पूरा सिस्टम ही बेकार हो चुका है।
'हर घर नल योजना' – नाम बड़ा, पर काम अधूरा
राज्य सरकार द्वारा विभिन्न जिलों में पानी की आपूर्ति के लिए पाइपलाइन बिछाने, टंकी निर्माण और मोटर पंप लगवाने का कार्य किया गया, लेकिन वह या तो पूरी तरह नहीं हुआ या घटिया सामग्री के कारण कुछ ही महीनों में नाकाम हो गया। कई जगहों पर तो पाइपलाइन केवल दिखावे के लिए जमीन में डाली गई, और उससे कभी पानी ही नहीं आया। कहीं पाइप सड़ गए, कहीं टंकियाँ कभी चालू ही नहीं हुईं।
उदाहरण के तौर पर रांची के नामकुम, बरियातू, डोरंडा, रातू रोड, हरमू, विद्यानगर, कांके आदि क्षेत्रों में 'हर घर नल' योजना के तहत कार्य शुरू तो हुआ, लेकिन वर्षों बीत जाने के बाद भी अधिकांश घरों तक नियमित जलापूर्ति शुरू नहीं हो सकी है।
ग्रामीण झारखंड की हालत और भी खराब
शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण झारखंड की स्थिति अधिक चिंताजनक है। गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा, गिरिडीह, साहेबगंज और पाकुड़ जैसे जिलों में गांवों की महिलाओं को आज भी कई किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है। कई जलस्रोत सूख चुके हैं और बारिश के अभाव में पुराने हैंडपंप भी जवाब दे चुके हैं।
बिना योजना और बिना जवाबदेही के योजना पर हुआ खर्च बर्बाद
यह बात कड़वी जरूर है, पर सच यही है कि सरकार द्वारा खर्च किए गए करोड़ों रुपये बगैर ठोस योजना और ज़मीनी समझ के बर्बाद हो गए। न तो गहराई से गड्ढे खोदकर सही ढंग से पाइपलाइन बिछाई गई, न ही जलस्रोतों की नियमित जांच या रखरखाव की व्यवस्था की गई। इस कारण योजना अधूरी रह गई और लोगों को आज भी वैसी ही पानी की परेशानी झेलनी पड़ रही है जैसी पहले झेलते थे।
जनता का संघर्ष और सरकार की खामोशी
आज भी हर साल अप्रैल का महीना आते ही झारखंड की जनता को पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। सरकार द्वारा यह दावा किया जाता है कि वह हर संभव प्रयास कर रही है ताकि लोगों को पानी की परेशानी न हो, लेकिन धरातल पर इन प्रयासों का कोई ठोस असर नहीं दिखता।
सवाल यह है कि अगर योजना को पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से लागू किया गया होता, तो क्या आज भी लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे होते? क्या जनता के गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये यूं ही पानी में बह जाते?
भ्रष्टाचार की बू और कागजी प्रगति
इस योजना में भ्रष्टाचार की शिकायतें आम हैं। कई वार्डों में योजना का बजट पास हो चुका है, लेकिन धरातल पर न पाइपलाइन बिछी, न कनेक्शन दिए गए। कई ग्रामीण क्षेत्रों में यह आरोप है कि सिर्फ कागज़ों पर काम दिखाया गया और जमीनी हकीकत कुछ और है।
राज्य सरकार और संबंधित विभागों द्वारा समय-समय पर समीक्षा बैठकें तो होती हैं, लेकिन उसमें लिए गए निर्णयों का क्रियान्वयन नहीं हो पाता। जिन क्षेत्रों में योजना लागू हुई, वहां भी रखरखाव का अभाव, बिजली की अनियमितता और स्थानीय प्रशासन की लापरवाही के कारण स्थिति नहीं सुधर पाई।
बात सिर्फ पानी की नहीं, जवाबदेही की भी है
हर व्यक्ति को स्वच्छ पेयजल मिलना उसका मौलिक अधिकार है। पानी पहुंचाना सरकार की जिम्मेदारी है—लेकिन जब नीयत ही संदेहास्पद हो और प्रशासनिक प्रणाली में भ्रष्टाचार हावी हो, तो ऐसी योजनाएं सिर्फ कागजों तक सीमित रह जाती हैं।
सरकार को चाहिए कि वह इस समस्या को सिर्फ 'एक और योजना' के रूप में न देखे, बल्कि इसे मानवीय संकट समझकर गंभीरता से ले। योजना को दोबारा सशक्त रूप से शुरू किया जाए, दोषी अधिकारियों की जवाबदेही तय हो, और यह सुनिश्चित किया जाए कि हर घर तक पानी पहुंचे, खासकर गर्मियों में, जब इसकी सबसे अधिक जरूरत होती है।
राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी – क्या सिर्फ घोषणा से पानी आएगा?
राज्य सरकारें चुनाव के दौरान 'हर घर जल' जैसी योजनाओं को प्रचार का मुख्य हथियार बनाती हैं। घोषणाएं होती हैं, शिलान्यास होता है, लेकिन जब बात कार्यान्वयन की आती है, तो तस्वीर बदल जाती है। अफसरों के ट्रांसफर, ठेकेदारों के बीच कमीशनबाजी, और विभागीय टालमटोल के चलते आम जनता को सिर्फ आश्वासन ही मिलता है।
रांची जैसे राजधानी क्षेत्र में यदि यह हाल है, तो कल्पना कीजिए सुदूर गांवों में हालात कैसे होंगे? यह सवाल सीधे प्रशासन और सियासत से है – क्या पानी भी वोट बैंक की तरह इस्तेमाल हो रहा है?
पर्यावरणीय संकट से और बिगड़ रही है स्थिति
झारखंड में पिछले एक दशक में भूजल स्तर में भारी गिरावट आई है। न तो वर्षा जल का समुचित संचयन हुआ, न ही तालाब-पोखरों की सफाई या पुनर्जीवन पर ध्यान दिया गया। झारखंड के हजारों पारंपरिक जलस्रोत आज कचरे के ढेर या बसावट की बलि चढ़ चुके हैं।
राज्य में औसतन सालाना वर्षा 1200-1400 मिमी होती है, लेकिन उसका 70% बहकर चला जाता है क्योंकि उसे रोकने और संग्रह करने की योजनाएं जमीन पर नहीं उतरीं। इससे ‘हर घर जल’ योजना पर सीधा असर पड़ा है, क्योंकि जलस्रोत ही सूख गए हैं।
तकनीकी और संरचनात्मक खामियाँ
- कई इलाकों में मोटर पंप और फिल्टर प्लांट लगवाए गए, परन्तु उनके लिए बिजली की स्थायी आपूर्ति सुनिश्चित नहीं की गई।
- जहां पानी सप्लाई होता भी है, वहां फिल्टरिंग या ट्रीटमेंट की व्यवस्था नहीं है, जिससे लोगों को गंदा या अशुद्ध जल मिल रहा है।
- पाइपलाइन लीक हो रही है, कई जगहों पर वह जानवरों या वाहनों के कारण टूट चुकी है, और मरम्मत के लिए कोई हेल्पलाइन या स्थानीय तंत्र नहीं है।
योजना को जमीन से जोड़ने की आवश्यकता
सरकार को अब चाहिए कि वह योजना को ‘जनता के साथ’ जोड़े। जल पंचायतें, ग्राम जल समितियाँ और वार्ड स्तरीय निगरानी समूह बनाए जाएं। महिलाओं को विशेष रूप से शामिल किया जाए, क्योंकि पानी की सबसे बड़ी मार वही झेलती हैं।
हर वार्ड या गांव को एक जल मित्र, या ‘जल प्रहरी’ की ज़िम्मेदारी दी जाए जो न सिर्फ शिकायत दर्ज कर सके बल्कि दैनिक निगरानी कर सके।
बच्चों और शिक्षा पर असर
गर्मी के महीनों में स्कूलों में भी पानी का संकट इतना बड़ा हो जाता है कि कई बार पढ़ाई बाधित होती है। बच्चों को स्कूल में साफ पानी नहीं मिलता, और शिक्षक भी कहीं से पानी लाकर दिन गुजारते हैं। कई गरीब परिवारों में बच्चे पानी लाने में दिन का बड़ा हिस्सा खर्च कर देते हैं, जिससे उनका शिक्षा से जुड़ाव टूटता है।
महिलाओं पर जल संकट की दोहरी मार
ग्रामीण झारखंड में महिलाएं प्रतिदिन औसतन 3 से 6 किलोमीटर पैदल चलकर पानी लाती हैं। गर्मी में यह दुगुना हो जाता है। यह केवल एक शारीरिक श्रम नहीं है, यह उनके स्वास्थ्य, रोजगार और आत्म-सम्मान से जुड़ा प्रश्न बन चुका है। कई जगहों पर महिलाएं जंगलों या नालों के पास खतरे उठाकर पानी भरने जाती हैं।
सरकारी आँकड़े और जमीनी सच्चाई में अंतर
सरकारी वेबसाइटों और जल शक्ति मंत्रालय की रिपोर्टों में झारखंड के हजारों गांवों को ‘हर घर जल युक्त’ दिखाया गया है। लेकिन जब पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता या स्थानीय निवासी वहाँ जाकर देखते हैं, तो हकीकत सामने आती है—सूखी पाइपलाइन, टूटी टंकियां और पानी के लिए भटकती भीड़।
यह 'कागज़ी जल क्रांति' असल में सरकारी आंकड़ों की हेराफेरी और "टारगेट पूरा" करने की जल्दबाज़ी का परिणाम है।
समाधान के ठोस सुझाव (नीतिगत स्तर पर)
- हर जिले में जल संकट आयोग का गठन किया जाए जो गर्मी शुरू होने से पहले क्षेत्रवार प्लान बनाए।
- जल कर को लेकर नई नीति बने, जिसमें पानी का व्यावसायिक दोहन रोकने और घरेलू जलाधिकार को प्राथमिकता दी जाए।
- शहरी जल स्रोतों को पुनर्जीवित किया जाए – हरमू नदी, सुवर्णरेखा, तालाब जैसे स्रोतों का पुनरुद्धार हो।
- प्राइवेट टैंकर लॉबी पर नियंत्रण हो और सरकारी टैंकर वितरण को पारदर्शी बनाया जाए।
- ईमानदार और पारदर्शी अमल: योजना के लिए आवंटित बजट का सही इस्तेमाल, और ठेकेदारी में पारदर्शिता ज़रूरी है। लोकल निगरानी समितियाँ बनाई जानी चाहिए।
- स्थायी जल स्रोतों का विकास: वर्षा जल संचयन, चेक डैम और तालाबों का निर्माण अनिवार्य किया जाए।
- तकनीकी निगरानी: प्रत्येक परियोजना की डिजिटल निगरानी, ड्रोन सर्वे और जीआईएस आधारित रिपोर्टिंग अनिवार्य की जाए।
- जनभागीदारी: आम जनता को भी योजना की निगरानी और रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी दी जाए।
नहीं चेते तो जल संकट से जूझने को हो जाइए तैयार
यदि समय रहते सरकार ने ठोस और कारगर कदम नहीं उठाए, तो वह दिन दूर नहीं जब पानी को लेकर समाज में अशांति और टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पानी पर होने वाला संघर्ष, सिर्फ पर्यावरणीय नहीं, सामाजिक और राजनीतिक संकट में भी बदल सकता है।
अतः वक्त की मांग है कि हम सब—सरकार, प्रशासन और जनता—एकजुट होकर पानी की इस समस्या को हल करें, ताकि झारखंड में हर घर तक पानी पहुंचे और किसी को भी पानी की बूंद-बूंद के लिए तरसना न पड़े।
झारखंड में जल संकट अब केवल सुविधाओं की कमी नहीं, बल्कि प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी का परिणाम बन चुका है। यदि अब भी सरकार ने इस दिशा में ठोस, जवाबदेह और जनोन्मुखी पहल नहीं की, तो वह दिन दूर नहीं जब पानी को लेकर सामाजिक संघर्ष की स्थिति बन जाएगी। जल संकट सिर्फ पर्यावरणीय समस्या नहीं है, यह सामाजिक असंतुलन और राजनीतिक असफलता की तस्वीर भी पेश करता है।
इसलिए अब वक्त आ गया है कि सरकार, प्रशासन और समाज एक साथ आएं और 'हर घर नल' योजना को सिर्फ योजना नहीं, बल्कि 'जनाधिकार' की तरह लागू किया जाय तथा इसे आंदोलन के स्तर पर लिया जाए। नहीं तो हमारी अगली पीढ़ी की प्यास हमारी नीयत की कीमत चुकाएगी।

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