संपादक- अशोक कुमार झा।
हमारा देश का इतिहास, हमारी संस्कृति, हमारी परंपरा, हमारा धर्म, हमारा सोच हमेशा से पूरी दुनिया से कुछ अलग और विशेष रहा है।
हमारी सनातन संस्कृति में कई ऐसी खास चीजें रही है, जो हमेशा से हमें पूरी दुनिया में अलग पहचान हमें दिलाती रही है।
वैश्वीकरण के साथ जैसे जैसे हमारा जुड़ाव हमारी संस्कृति के बाहर के लोगों के साथ होता गया और हमने अपनी संस्कृति से बाहर के लोगों की संस्कृति को करीब से समझना शुरू किया तो हमें अपनी संस्कृति की कई ऐसी चीजें जो हम परंपरा से निभाते आ रहे, वह हमें कुरीति सी लगने लगी और हमें दूसरे की संस्कृति में आकर्षण होने लगा।
जैसा कि हमारी संस्कृति में सती प्रथा या सिर्फ एक बार शादी की प्रथा या फिर वैदिक रीति रिवाज से शादी करने जैसी प्रथा हमें कुरीति जैसा प्रतीत होने लगा और हमने धीरे धीरे इस कुप्रथा को कम करने की दिशा में सोचना शुरू कर दिया।
धीरे धीरे हम अपनी मूल संस्कृति और संस्कार से दूर होने लगे और बाहर की संस्कृति हमारे अंदर प्रविष्ट होनी शुरू हो गई।
अपनी सोच में इस बदलाव का असर हमारी पीढ़ियों पर होने लगा और हमारी नीचे की पीढ़ी यानी नई पीढ़ी को बाहर की कुछ प्रथाएं अधिक भानें लगी।
उन्हीं में से एक प्रथा जो हमारी संस्कृति में प्रवेश कर चुकी है वह है तलाक नाम की प्रथा। यह प्रथा आज हमारी संस्कृति में एक बहुत बड़ी महामारी का रूप ले चुकी है।
हमारी संस्कृति में शादी का मतलब होता है जन्म जन्म यानी सात जन्म का रिश्ता, जो एक बार जुड़ जाने के बाद हमारी मृत्यु के बाद भी खत्म नहीं होती। साथ ही परिवार का मतलब होता है हमारा अपना जिसके साथ हमारा आत्मीय मिलन हो जाता है, जिसके खिलाफ सोचना भी परमात्मा के फैसले पर अंगुली उठाने के समान माना जाता था।
परंतु आज की हमारी नई पीढ़ी की सोच ने शादी जैसी पवित्र बंधन को सिर्फ एक रश्म और समझौता की तरह माना जाने लगा है। पहले हम हमेशा रिश्ते को भगवान की देन समझ कर उसे टूटने से बचाने और हर हाल में निभाने के बारे में सोचा करते थे। पर हमारी आज की नई पीढ़ी अब बात बात में रिश्ते को तोड़ने की एक दूसरे को धमकियां दिया करते हैं और कई मामले में छोटी छोटी बातों को लेकर शादी जैसे जन्म जन्मांतर के लिए बनाए गए पवित्र रिश्ते एक झटके में टूटते हुए नजर आने लगे हैं, जो हमारी संस्कृति के लिए बहुत बड़ी चिंता का विषय है।
आज हम दूसरे धर्मों यानी मुस्लिम महिलाओं में तीन तलाक जैसी प्रथा को कुप्रथा मानकर उसको दूर करने की दिशा में कदम उठाना शुरू किया है, जिसका लाभ भी इस देश की कई मुस्लिम महिलाओं को अब तक मिल चुका है। परंतु इसके विपरित हमारी संस्कृति में प्रवेश कर रही इस कुप्रथा के बारे में हमने अभी तक सोचना शुरू नहीं किया है, जो हमारी सोच और संस्कृति में जहर की तरह घुलती जा रही है, जिसपर समय रहते गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है।
आज इस तलाक जैसी महामारी का दुष्परिणाम हमने अपने कुछ करीबी को झेलते देखा है। हमारे समाज में बच्चों की खुशहाल जिन्दगी के लिए समय रहते उनके योग्य लड़के या लड़की से शादी कराना और अपने सामने में अपने वंश परंपरा को आगे बढ़ते हुए देखना एक सपना होता है। और अपने इस सपने को पूरे करने के लिए अपना मान सम्मान, इज्जत और प्रतिष्ठा सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाते हैं। परंतु हमारी रिश्तों में समझौतावादी प्रवृत्ति की कमी के कारण हमारे आजकल के बच्चे पति पत्नी में एक दूसरे की खूबियां देखने की जगह कमियां ढूंढने में लग जाते हैं, जिस कारण शादी के बावजूद हमारा मन का मिलन नहीं हो पाता है और धीरे धीरे वह तलाक जैसी भयावह स्थिति का रूप ले लेती है।
हमारी नई पीढ़ी यह बिल्कुल नहीं सोच पाती है कि इसके बाद उसके माता पिता का क्या होगा ? जब अचानक से उसे अपने बेटे या बेटी की तलाक की खबर मिलेगी तब उसे कितना चोट पहुंचेगा और उस चोट को वह कैसे संभाल पाएगा ?
हाल ही हमारे एक करीबी जो कुछ दिन पहले तक अपने दोनों बेटियों की शादी करने के बाद काफी स्वस्थ और प्रसन्न रहा करते थे। परंतु अचानक से उनके जब उन्हें अपनी एक बेटी के तलाक होने का समाचार प्राप्त होता है, उसके बाद वह अचानक से कई बिमारियों से ग्रसित होने के साथ साथ काफी कमजोर हो जाते हैं और आज वह अपनी जिंदगी और मौत के बीच से गुजर रहे हैं।
ऐसे कई उदाहरण हमारे देश में हैं जहां बच्चों के तलाक के बाद माता पिता की अचानक कई बिमारियों से ग्रसित हो रहे हैं और बांकी की जिंदगी तड़प तड़प कर घूंट घूंट कर जीने को विवश हो रहे हैं । क्योंकि उसके बाद उन्हें लगने लगता हैं अब अपने बच्चों गलती के कारण अब वह अपने समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं रह गए हैं।

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